Sunday, 23 April 2017

हम भूल जाते हैं, मानवाधिकार, मानवों के होते है, राक्षसों के नहीं.....कश्मीर, कश्मीरी पंडित और मुसलमान....

हम भूल जाते हैं, मानवाधिकार, मानवों के होते है, राक्षसों के नहीं.....कश्मीर, कश्मीरी पंडित और मुसलमान....

1990 में, लगभग 2 लाख कश्मीरी पंडितो को मुस्लिम कट्टरपंथियों(पाकिस्तानी आतंकवादी) ने उनके घरो में घुसकर उनकी माँ बहनो के साथ बलात्कार किये,हज़ारो की संख्या में लोगो को मौत के घाट उतार दिया गया, जो बचे उन्हें मज़बूरन अपनी कश्मीर छोड़ कर भागना पड़ा.. 
हमारी लचर और कमजोर प्रतिक्रिया की वजह से आज उन्ही लोगो की हिम्मत इतनी बढ़ चुकी है, की उनके हाथ भारत माँ के वीर सपूतो के कालर तक पहुच चुके है, वो हमारी सेना पर पत्थर बरसा रहे है, और हम मानवाधिकारों की बात करते है,
हम भूल जाते है, मानवाधिकार, मानवों के होते है, राक्षःसो के नहीं.. 
जब 2 लाख लोगो को कश्मीर से भगा दिया जा सकता है, तो सम्पूर्ण ताकत का इस्तेमाल करके क्या कुछ हज़ार पत्थरबाजो  को, और कुछ सौ उनके आकाओ को भारत के किसी कोने में जबरन नहीं रखा जा सकता है..???
एक नीति बनाओ, जो भी पत्थर बाजी करता हुआ, या उसका समर्थन करता हुआ पाया गया, उसे सीधे वहाँ से उठाओ और भारत के किसी कोने में शरणार्थी बनाकर छोड़ दो.. कुछ सालो तक अगर हमें कुछ पैसे या शेल्टर देने पड़े तो कोई बात नहीं, 
लेकिन उन्हें किसी भी कीमत पर दुबारा कश्मीर में दाखिल ना होने दिया जाए,
और जो आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त पाया जाए, उन्हें तुरन्त 72 हूरों के पास भेज दिया जाए, धीरे-धीरे वहाँ के असली बाशिंदों कश्मीरी पंडितो को वहाँ बसाया जाए, 
इसके लिए अगर supperssion की नीति का इस्तेमाल भी करना पड़े तो किया जाए,
जो लोग कहते है, की कश्मीरी पंडितो के लिए आम सहमति बनाई जाए, मैं उनसे पूछना चाहता हु, जिन लोगो ने कश्मीरी पंडितो को मार मार कर भगाया हो, क्या वो प्यार से उन्हें वापस आने देंगे..??? अगर उनका दिल इतना ही बड़ा होता तो, 2 लाख कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनकर नहीं रह रहे होते..?
दूसरा मीडिया को कश्मीर में घुसने की इज़ाज़त ना दी जाए, सारी सीमाओ को पूरी तरह से शील कर दिया जाए, किसी पाकिस्तानी या इंटरनेशनल संस्था के किसी भी इंसान को कश्मीर से दूर रखा जाए, और जो लोग भारत सरकार के साथ सहयोग करना चाहते है, उन्हें और उनके बच्चों को पूर्ण समर्थन दिया जाए, उन्ही सारी सुविधाये उपलब्ध करायी जाए, 
हो सके तो सरकारी नौकरियों में अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जाए.. उनके लिए अच्छे स्कूलो की व्यवस्था हो, अच्छे अस्पताल बनाये जाए, वर्ल्ड क्लास स्टेडियम बनाये जाए,
 और जो भी राह से भटकता हुआ दिखाई दे, उसके कान पकड़ कर कश्मीर से बाहर निकाला जाए, और फिर दुबारा कभी घुसने की इज़ाज़त ना दी जाए..उन्हें समस्त सरकारी सुविधाओ से आजीवन बंचित कर दिया जाय.. 
अगर एक बार कश्मीरी पंडित दुबारा वहाँ बस जाए, तो वहाँ की डेमोग्राफी में बदलाव हो जाएगा, और फिर जब भी मानवाधिकारों की बात होगी, तो फिर उसमे कश्मीरी पंडित भी शामिल होंगे, जब भी कश्मीर की बात होगी, सिर्फ मुसलमानो की नहीं, कश्मीरी पंडितो की भी बात होगी..
लेकिन उसके लिए सरकार को पूरे मन और पूरी ताकत के साथ कश्मीरी पंडितो के साथ खड़ा होना पड़ेगा, सबसे बड़ी चीज़ सरकार को कश्मीरी पंडितो की सुरक्षा की गारन्टी लेनी होगी.. 

Sunday, 16 October 2016

जरुरी नहीं है,
चमकना
सूरज की तरह,
जुगनू के लिए,
उसकी
टिमटिमाहट,
ही काफी होती है....
------- रोहितपटेल,"अकेला"

Tuesday, 17 May 2016

साधुत्व.. ईश्वर भक्ति या मजबुरी

साधुत्व.. ईश्वर भक्ति या मजबुरी

बहुत कम लोग ऐसे है, जो अपनी खुशी से साधु बने है, या बने रहना चाहते है, अधिकतर को परिस्थितियो ने संत बनने को मजबुर किया है, इनके जख्म दिखाई इसलिए नही देते, क्योकि इन्हे इसके साथ जीने की आदत पड चुकी है.

जब भी गंगा के घाटो पर पहुँचता है, मन करता है, साधु बन जाऊ इन लोगो की अपनी दुनिया होती है, इनका ना किसी से कोई रिश्ता होता है, ना किसी से दुश्मनी, ऐसा नहीं है, इनके परिवार नहीं है, इनमे से अधिकतर के बेटे-बेटिया, बहु, यहाँ तक की नाती-पोते भी है, वो बात अलग है, कहीं ना कहीं इनके साधुत्व के लिए भी, इनके अपने ही जिम्मेदार है,  

कुछ गुस्से में बहु-बेटे से किसी वात से गुस्सा होकर चले आये,  कोई ऐसा भी है, जो अपने बेटो के पास जाना चाहता है,  लेकिन उनके अपने लाडले उन्हे साथ रखने को तैयार नहीं है,  ऐसा नहीं है, यह यहाँ बहुत खुश है, या यहाँ इन्हे बहुत सारी सुविधाये मिलती है,  या फिर इनकी आदत हो गई है,ऐसे रहने की, अगर आप इनसे पुछो तो यह यही कहते हैं,  हम यहां बहुत खुश है, माँ गंगा की शरण में है, इससे अच्छा और क्या हो सकता है, फिर भी अगर ज्यादा कुरेदो तो जख्म आँसुओ के साथ बाहर आने लगते हैं, ऐसे ही एक बाबा हैं.

60 साल के बाबा रामकृपाल, पहले इनका नाम माखनलाल था, बहुत ही शांत रहते है. जब तक इनके बहुत खास ना हो जाये, यह परिवार या  पिछली ज़िन्दगी के बारे में कोई बात नहीं करते,  "ऐसा नही है हम यहाँ बहुत खुश है, लेकिन यहाँ हमें उससे बहुत ज्यादा खुश हैं, जितना अपनो के साथ रहकर थे, यहाँ हमारा परिवार यह सब घाटो पर सोने वाले लोग है, उनमें वो जानवर भी शामिल है, जो हमारे साथ सोते है, हम सब साथ रहते है, और खुश है,आगे कहते है, क्या रख्खा है इस दुनिया में, जो थोडे दिन बचे है, वो कट जायेंगे, मरने के बाद चार कंधे ही तो चाहिए, वो यहाँ मिल ही जाते है..क्या फर्क पडता है, वो अपनो के है, या किसी और के..

कुछ ऐसे है, जो अब अपनो की शक्ल तक नहीं देखना चाहते है, उनसे अगर उनके अपनो के बारे में पुछो, तो गुस्से से लाल हो जाते है,

71 साल के बाबा प्रभुशंकर कहते है, कौन बेटा, कैसा परिवार, किस बात का रिश्ता, मेरा कोई नही इस दुनिया में, मै अकेला आया था अकेला जाऊगा, मुझे किसी की कोई जरूरत नही, मुझे इन घाटो पर 9 साल हो गये, अब बचा टाइम भी यही गुजरेगा..

80  साल के रामानंद ठीक से ना तो बोल सकते है ना ढंग से चल सकते है, अगर आप इनकी बात समझ पाओ तो आप इनसे बात कर सकते हो, अपनी टुटी-फुटी आवाज में कहते हैं, क्या करे, घर जाकर, अब इस उमर में हमे क्या चाहिए, दो वक्त की रोटी मिल जाये, वस काफी है, अब शरीर तो साथ देता नहीं, मेहनत करके तो पेट भर नहीं सकते, यहा दो वक्त की रोटी तो मिल ही जाती है, यहाँ रोज-2 हमें कोई टोकने वाला तो नही है, कम से कम हम अपनी मरजी के मालिक तो है.

युपी की बरेली के रहने वाले, स्वरुपानंद कहते हैं, " मैं सत्तर साल का हुँ, मेरा एक ही बेटा है, घरवाली 10 साल पहले दुनिया छोड गई, मेरे बेटे के छह बच्चे है, दो बीघा जमीन है, बेटा मजदुरी करके जैसे-तैसे घर चलाता है, मै इस उमर में कोई काम तो कर नही सकता, बेटे पर बोझ कैसे बनु, ऐसा नही है वो मुझे चाहता नहीं  है, या मेरी बहु मुझे कुछ कहती है, जब भी मन करता है चला जाता हुं उनसे मिलने, और जो पैसे इन घाटो पर लोग मुझे दे जाते है, मै सब उन्हे दे देता हुँ, उसके लिए अपना परिवार पालना मुश्किल है, मै कैसे इस उम्र में उस पर बोझ बन जाऊ..

हांलाकि हरिद्बार में बडी सख्या में आञ्रम है, और इनमें बडी सख्या में वो बुजुर्ग रहते है, जो अपनी ढलती उम्र या खराब स्वास्थ्य के कारण अब हासिए पर आ चुके है, लोकिन सभी को आञ्रमो के थोडे कठिन कानुन अच्छे नही लगते,

67 साल के रामानंद कहते है," अगर हमें इतने ही नियम मानने कि आदत होती तो हम अपने बेटो के साथ ही रह लेते, अब इस उम्र में हमें आजादी चाहिए, शांति कुंज जैसे बडे आञ्रमो मे तो खाने, सोने, नहाने यहाँ तक की पुजा का भी टाईम फिक्स है, हम इन घाटो पर आजादी के लिए है, आञ्रम में जाकर मुझे लगता है, जैसे मै फिर से अपने बेटे के घर में पहुँच गया हुँ..

कुल मिलाकर बहुत कम लोग ऐसे है, जो अपनी खुशी से साधु बने है, या बने रहना चाहते है, अधिकतर को परिस्थितियो ने संत बनने को मजबुर किया है, इनके जख्म दिखाई इसलिए नही देते, क्योकि इन्हे इसके साथ जीने की आदत पड चुकी है, और यह किसी के बहुत कुरेदने पर ही, अपना मुँह खोलते है, वरना यह भगवान की आराधना में ही तल्लीन रहते है, कुल मिलाकर एक परिवार में रहते हुए, थोडा-थोडा बाप-बेटे दोनो को एडजस्त करना चाहिए, गुस्से में लिए गये अधिकतर फैसले गलत ही होते है, धैर्य रख्खे, बेटो को चाहिए वो यह ना समझे कि वो हमेशा जवान रहने वाले है, आज जिस अवस्था में उनके माँ बाप है, कल वह भी उस अवस्थ में पहुँचेंगे..


रियल लाइफ एक्सपेरिन्स 
रोहित गंगवार 
हर की पौड़ी, हरिद्वार
17-05-2016

Monday, 14 December 2015

यह अजीब सी ज़िन्दगी,
यह उलझे से रिश्ते ,
हर कोई, दूर से कहता
मै हूँ , पास तुम्हारे,

ना कोई राह,
ना कोई मंजिल
ना ख़ुशी, ना कोई गम
ना किसी पे गुस्सा,
ना किसी से प्यार,
जैसै यह ज़िन्दगी,
कहीं ठहर सी गई ,
जिससे शुरू हुई,
उसी पे , जैसे,
ख़त्म सी हो गई,
रिश्तो की उलझन मे,
 इतना उलझा "रोहित"
सीधी सी ज़िन्दगी,
भूल-भुलैया ही बन गई....
           ''Rohit Gangwar"